‘ मिस्ट्री बन चुके “दुबे” तालाब का इतिहास ‘
(रजनीश जैन✍️)
यह एक गुजराती हीरा व्यापारी की कहानी है जो सीधे पन्ना और बाजीराव पेशवा से जुड़ती है। एक ऐसी शख्सियत की कहानी जो संभवतः देश के हीरा उद्योग का आदि पुरूष साबित हो सकता है। मराठा साम्राज्य की आर्थिक इमारत को जिसने हीरों से चमका दिया। गंगादत्त दवे नामक इस शख्स ने सागर व पन्ना में अपनी पूंजी से तालाब बनवाए। जिसने पन्ना व सागर के राजदरबारों को आर्थिक संकटों से उबारा। सिंधिया राजपरिवार पर साढ़े चार लाख रूपयों की वसूली के दस्तावेज बीते दो सौ सालों से छुपाए जिस शख्स का परिवार आज गुमनामी में चला गया। सागर के धर्मश्री क्षेत्र में इन्हीं गंगादत्त दवे के वंशजों का समाधिस्थल है जिसे अब ‘दवे तालाब’ के बजाए दुबे तालाब कहा जाने लगा है। इसका संबंध खेड़ावाल गुजराती समाज के दवे परिवार से है न कि सागर के दुबे मालगुजार परिवार से।
प्रथमतः यह ऐतिहासिक तथ्य जान लीजिए कि महाराज छत्रसाल की वसीयत के मुताबिक उनके राज्य का जो तीसरा हिस्सा पेशवा बाजीराव को मिला था उसके बटवारे का आधार राज्य की आमदनी थी। उस वक्त सन 1733 में तैतीस लाख रू की आमदनी के अनुसार इलाके बटे उनमें पन्ना और हीरापुर की हीरा खदानों के भी तीन हिस्से हुए थे। एक हिस्सा पेशवा को मिला जिनके द्वारा नियुक्त किए गये कमावीसदार(कलेक्टर के समतुल्य) गोविंद पंत बुंदेले के साथ एक अनुभवी और प्रसिद्ध हीरा व्यापारी और साहूकार गंगादत्त दुबे को भी भेजा गया। गोविंद पंत बुंदेले ने सागर के रानगिर में अपना पहला आवास बनाया क्योंकि सागर का किला कुरवाई के नवाब दलेर खां के कब्जे में था।गंगादत्त को हीरा खदानों के खनन और अधीक्षण का काम सौंप कर पन्ना भेज दिया गया। वहां गंगादत्त के अपने खनन इलाके और भंडारगृह थे।
भट्ट दवे परिवार के दस्तावेजों के आधार पर यह तथ्य सामने आया है कि 1740 से 1743 के बीच गंगादत्त ने 27 ऊंट गाड़ियों पर लादकर पन्ना से पेशवा का हीरा भंडार सागर खजाने में ट्रांसफर किया था। 1743 में 72 साल की आयु में गंगादत्त दवे का निधन सागर में हुआ तब तक उनके बेटे परमानंद ने पन्ना की हीरा खदानों का कार्यभार संभाल लिया था और मराठों और बुंदेला दरबारों से उसके मधुर संबंध थे। 1740 के आसपास कुरवाई के नवाब से सागर फोर्ट को खाली कराने में पेशवा दरबार को हस्तक्षेप करना पड़ा। गोविंदपंत को बुंदेलखंड का मुआमलतदार नियुक्त कर सागर का कच्चा किला दे दिया गया। वे रानगिर से सागर किले में रहने आ गये। इसके बाद ही पन्ना से हीरा भंडार सागर तबादलित हुआ था। लेकिन अब गोविंद पंत के सामने सागर नामक परकोटा गांव को एक व्यवस्थित नगर का रूप देना था। मराठा शासन के अनुरूप प्रशासनिक प्रणाली निर्मित करना थी। किले का कोट पक्का कराना था कई इमारतें और मंदिर बनवाना थे। साहूकार गंगादत्त ने अपने जीवनकाल में ही इस काम के लिए कर्ज देना शुरू किया। आगे परमानंद ने भी यह सहयोग जारी रखा। 1743 से 1760 तक चले इन निर्माणकार्यों में 60 लाख रू खर्च हो चुके थे जिन्हें गंगादत्त परमानंद दवे के परिवार ने दिया । हालांकि यह तथ्य अभी स्थापित होना बाकी है कि यह कर्ज पन्ना खदानों से आऐ हीरों के विक्रय से ही चुकाया गया होगा और बाकायदा पेशवा दफ्तर में भी इसको दर्शाया जाता होगा।
गुजरात में दुबे दवे कहलाते हैं। गंगादत्त जी ने गुजरात और राजस्थान से जो कारोबारी रिश्ते बनाए थे उसमें बहुत से गुजराती और मारवाड़ी परिवार सागर शिफ्ट हुए थे। इनमें बहुत से बाजखेड़ावाल गुजराती ब्राह्मण परिवार थे जिनका मल्लीमाता मंदिर सागर के चकराघाट इलाके में आज भी है।परमानंद की तरफ बुंदेला राजा धोकलसिंह और गोविंद पंत बुंदेले के पोते रघुनाथ खेर की ओर से बकाया रकम निकलने के दस्तावेज भट्ट दवे परिवार में थे।
परमानंद दवे की मृत्यु 1772 में 73 साल की आयु में हुई तब उनके बड़े पुत्र दुर्गादत्त दवे ने कारोबार संभाला। खेर परिवार के आबा साहेब कि पत्नी लक्ष्मीबाई साहिब जिनके नाम पर सागर में लक्ष्मीपुरा बसा हुआ है उन्हें दुर्गादत्त दवे बहिन मानते थे। दवे परिवार की संपन्नता का स्तर इससे लगाया जा सकता है कि एक बार लक्ष्मीबाई साहेब ने दुर्गादत्त को राखी बांधी तो उन्होंने एक लाख रूपए नगद का उपहार लक्ष्मीबाई को दिया था।
दवे परिवार का सागर में निवास वर्तमान पारस टाकीज परिसर में था। पन्ना में संभवतः वे कुंजवन में रहते थे। सागर के निवास को इस तरह आलीशान और खुफिया तरीकों से बनाया गया था कि इसके भीतर से निकली सुरंगों से घुड़सवार तक निकल सकते थे। सागर किले से मात्र दो डेढ़ सौ मीटर पर स्थित दवे निवास को ही शायद यह सुविधा मिली होगी कि वे विपदा या बाहरी हमले के समय अपना कीमती असबाब लेकर सुरंगों से किले में प्रवेश कर जाऐं। 1799 में होल्कर समर्थित अमीरखां पिंडारी ने जब सागर पर पांच हजार पिंढारों के साथ हमला किया तब उसका खास निशाना लक्ष्मीपुरा स्थित सूभेदार वाड़ा और चकराघाट के पास स्थित दवे निवास ही थे। एक महीने तक रोज किसी न किसी घर को आग लगा कर दहशत फैलायी जाती थी। हत्याऐं और बलात्कार का मंजर था। इतिहास कार वृंदावन लाल वर्मा ने इस लूटमार के जो ब्यौरे दिए हैं उसके मुताबिक अमीरखां पिंडारी ने उस संपत्ति को तालाब और कुओं से बाहर निकलवाने बाहर से कुशल गोताखोर बुलवाए थे जो प्रतिदिन उसके द्वारा पकड़े गये व्यापारी यातनाओं के बाद कबूल कर निशानदेही करते थे। अमीरखां को शहर से भगाने के लिए नागपुर के भोंसलों ने भी खेर परिवार से रकम वसूली।
अमीर खां के हमले से प्रेरणा लेकर 1804 में जब दौलतराव सिंधिया ने देवरी और सागर आकर खेर परिवार के दो बेटों का अपहरण किया तब एक लाख पचहत्तर हजार रू की फिरौती देकर छुड़ाने में साहूकार गंगादत्त दवे ने ही आर्थिक मदद दी थी। 1812/13 में अमीर खां पिंढारी फिर सागर लूटने लौटा था और इस बार वह सिंधिया का समर्थन लेकर आया था। 1818 में सागर किले पर अंग्रेजों के कब्जे के साथ हीरा की खदानें भी अंग्रेजों के पास चली गयीं। आमदनी का मूल स्रोत खत्म होने पर दवे परिवार की रईसी का दौर खत्म हुआ।
इस दवे या दुबे परिवार की तीन आरंभिक पीढ़ियों की समाधियां आज सागर के धर्मश्री नामक इलाके में स्थित दवे तालाब परिसर में छत्रियों के रूप में बनवाई गयीं थीं जिन पर अभिलेख पट्ट विद्यमान थे। तब दुबे तालाब का रकबा विशालकाय था। पास ही वेदांती मंदिर में विसाजी चांदोरकर के वंशजों का स्थान था। सारा इलाका खूबसूरत बागबगीचों से गुलजार था। लेकिन इस परिवार की समृद्धि ही उनका काल बन गयी। परमानंद दवे के पांच पुत्र दुर्गादत, देवकृष्ण, केवलकृष्ण , निर्भयराम और नाथू जी जो नवीना सरस्वतीबाई की कोख से जन्मे वे 1834 से 1919 के बीच कालकवलित हो गये। केवलकृष्ण का ही वंश अचरतबाई से बढ़ा। इनके चार पुत्र भाईलाल,मायाशंकर, हीरालाल और गोवर्धनकी पीढ़ी 1966 तक अस्तित्व में थी। इनमें से मायाशंकर दवे की बेटी कंचनबाई का विवाह रहली के निकट एक गांव के बाबूलाल भट्ट से हुआ जिनके एक पुत्र केव्ही भट्ट सागर आकर रहने लगेऔर दूसरे पुत्र बालाजी भट्ट रहली से पहले बैरिस्टर बने। के व्ही भट्ट के परिवार में विजयकुमार भट्ट जैसे ब्यूरोक्रेट् हुए जो अब भोपाल में रहते हैं। एक भाई अशोक कुमार भट्ट मप्र के इनकमटैक्स सुपरिंटेंडेंट रहे। एक भाई अनिलकुमार के पुत्र निलय भट्ट आजकल मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के नामी कैमरामैन हैं।
मायाशंकर दवे के एक पुत्र रामशंकर थे जिनका जन्म 1940 में हुआ था। रामशंकर के चार पुत्र और दो पुत्रियों के नाम संजरे में हैं जिनका उल्लेख में विधिक और सुरक्षात्मक कारणों से नहीं कर रहा हूं। दवे परिवार की यह मूल पीढ़ी अभी सागर के भूराजस्व के रिकार्ड से लुप्त कर दी गयी है। 1952 के आसपास सीलिंग कानून में उनके गांव के गांव छीन लिए गये। संभवतः सागर के नजदीक अर्जनी, आमेट वगैरह वे ही गांव थे।
दवे या दुबे तालाब के मालिकों के हीरा व्यापारी होने और 27 ऊंटों पर पन्ना से लायी संपत्ति की किंवदंती ने दवे तालाब को खजाना खोजियों का निशाना बना दिया। तालाब के हर हिस्से की खुदाई लालची लुटेरे कर चुके हैं। खजाने की तलाश में ही दो छतरियों को नेस्तनाबूद कर दिया गया और तीसरी बची हुई छतरी का प्लास्टर खाल की तरह खींच लिया गया है। अब तालाब की जमीन ही खजाना बन चुकी है। इसके आसपास की जमीन का मूल्य दस करोड़ रूपये प्रति एकड़ के हिसाब से है। दवे तालाब अब घनी आबादी में आ गया है। ठीक सामने गुलाब बाबा का मंदिर करोड़ों रु की लागत से बनाया गया है।आज यह प्रापर्टी अरबों रु की है जिस पर भूमाफियाओं का नाम राजस्व रिकार्डों में आ चुका है। ऐतिहासिकता का हवाला देकर स्थानीय गौ पालक जिला अदालत भी गये थे लेकिन ऐतिहासिक जानकारी के अभाव में वे हार गये। भट्ट परिवार के एक वंशज के पास दवे परिवार से संबंधित सारा रिकार्ड,सरकारी रूमाल, फर्दें और ताम्रपत्र हैं जिनसे बड़े बड़े राजवंश आज देनदार बन सकते हैं। आजादी के समय रियासतों के विलीनीकरण के दौरान किए गये तकादे के दौरान संभवतः दवे जी का मूल परिवार किसी बड़ी अनहोनी का शिकार बना लिया गया या स्वयं पलायन कर गया।
भट्ट परिवार में तो किंवदती है कि दवे परिवार की जायदाद अपशकुनी है अतः इसपर क्लेम नहीं करना है। शायद इसमें आंशिक सचाई भी है। पारस टाकीज वाले दवे निवास को 1920 के आसपास एक जैन परिवार ने खरीदा था। उन्होंने भी खजाने की खोज में दवे निवास की एक एक ईंट गिरा दी। शहर के बुजुर्ग जानते हैं कि उन्हें एक म्यारी से बेशकीमती हीरों का कलेक्शन मिलने की खबर ने इस जैन परिवार को रातोंरात मशहूर कर दिया था। लेकिन उस जायदाद से आई समृद्धि ज्यादा नहीं टिकी। उस परिवार के पितृपुरुष का नाम ही आज गिना सेठ हो चुका है। उनकी बनाई टाकीज ने भी नीली फिल्मों के प्रदर्शन में बदनामी कमाई।
ऐतिहासिक स्मारकों, स्थानों का कोई मोल नहीं होता और गंगादत्त तो सागर को गांव से शहर का रूप देने वाले गोविंद पंत के भामाशाह ही थे। यदि सागर शहर के निर्माताओं की प्रतिमाएं लगाने के लिए जिन नामों का हक बनता है तो वे नाम गोविंद पंत बुंदेले, गंगादत्त दवे, बाला जी गोविंद , परमानंद दवे और विनायकराव चांदोरकर के ही नाम हैं।
यह शासन के राजस्व महकमे की जांच का विषय है कि जब दवे परिवार की मूल शाखा लुप्त हो चुकी है तो वह कौन सी अदृश्य शक्ति है जिसने उस परिवार के नाम राजस्व परिवार से विलुप्त करा कर, गलत सलत और संदिग्ध वारिसों की फौतियों से राजस्व रिकार्ड को कूटरचित कर दिया और तदनुसार रजिस्ट्रियां अस्तित्व में आ गई और भू माफिया तालाब को पाटने में लग गया। अब उन ताकतों के नाम मुझसे न पूछिए। सारा शहर उन्हें ( ——- ) के नाम से जानता है। मुझे अपने शहर में से ही शहर की खोज करने दीजिए।
आभार डॉ. रजनीश जैन वरिष्ठ पत्रकार