दूसरे के दुख को देखकर जो दुखी हो जाता है, उसकी जिंदगी में दुख नहीं आता- निर्यापक श्री सुधासागर जी महाराज
सागर। हम वह शक्ति कहा से प्राप्त करे जो हमारे पास है ही नही, जो हमारे पास है वह शक्ति नहीं, वह तो हमारी शक्ति को तिरोहित करने वाला है। भाग्य से शक्ति नहीं मिलती, भाग्य तो हमारी शक्ति को कमजोर करता है क्योंकि भाग्य कर्म के रूप में लिखा जाता है, कर्म सदा हमारी आत्मा को कंसता है, जकड़ता है और बंधन में डाले वह हमारी शक्तियों को कहा से उजागर करेगा।
महान आत्मायें शरीरातीत हो गयी, अब लेन देन का सवाल ही नही, उनके हाथ पैर है नही और हमारे पास वो निधि है नही, तो सावधान जो निधि चाहिए है वो मेरे पास है नही, जिसके पास है वो देने वाला है नही। सब बराबर है ऐसा कहने से समता भाव बहुत आता है लेकिन आनंद नही आएगा। समता का नाम आनंद नही है, आनंद का नाम है निराकुलता। मुझे राग द्वेष नही करना, मुझे दान नहीं करना, पूजा नहीं करना ये आकुलता है। समता व्यक्ति मजबूरी में भी रख लेता है क्योंकि उसे भय रहता है।
एक संसारी प्राणी कषाय इसलिए नही कर रहा है कि जेल हो जाएगी, शराबी शराब इसलिए नही पी रहा है कि जेल हो जाएगा, परिवार लूट जाएगा, जेल के डर से, परिवार के मोह से, बदनामी, दुर्गति के डर से शराब छोड़ दी। एक भी पाप नहीं कर रहा है तो धर्म हो गया, सो बात नहीं है, आप पाप क्यों नहीं कर रहे हैं सवाल इसका है? नरकों का डर है, जी, धर्म नही हुआ, पाप का त्याग, पुण्य का बन्ध हो जाएगा क्योंकि नरकों का डर है। कितने धर्मात्मा है जो मात्र नरकों के डर से पाप नहीं करते, जैसे कई बार कानून के डर से नही करते, ये त्याग नही है।
जो बहुत आरंभ व परिग्रह जोड़ता है वह नरक गति को जाता है। कभी जिनवाणी और गुरु के किसी वचन को झूठा, धमकी या लोभ तो मानना ही मत क्योंकि जिनवाणी और गुरु हमेशा सत्य ही बोलते है। जो एक पैसा देगा वह दस लाभ देगा ये भी झूठा मत मानना, ये उतना ही सत्य है जितना सत्य व्यक्ति खेत मे एक क्वांटल गेंहू बोता है, पचास क्वांटल गेंहू काटता है। दान व धर्म बरगद के बीज के समान बोया जाता है और जो फलता है तो बरगद के पेड़ के समान छाया देता है। मैंने देखा है जिनके हजार रुपये देने की ताकत नहीं थी, उन्होंने जब से दान देना शुरू किया है, आज वे करोड़ों देने लायक हो गए है।
चार प्रकार के अपराध होते हैं- एक अपराध वह होता है जो व्यक्ति करना नहीं चाहता लेकिन जीने के लिए करता है जैसे षटकर्म ये करना पड़ता है, ये अपराध है, पाप है लेकिन इसको अपराधी नही कहते क्योंकि आजीविका चलाने वाले को पापी नही कहा। दूसरा पाप वो कहलाता है जो उसे व्यापार में करना पड़ता है, गेंहू में घर मे दीमक लग गया क्या करे। बुद्धिपूर्वक मारना, वायरस हुआ है किसी घाव पर, कोई उपाय नही है, जीवो को मारना पड़ेगा, वो मरेंगे ही मरेंगे, कोई उपाय नही है इसलिए उद्योगी हिंसा को पाप में नही लिया। हिंसा के भेद कर दिए।
संकल्प हिंसा का हमारे यहाँ त्याग है, जिसका हमारा कोई लेना देना नहीं, उसके मरने से मुझे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं, उसको मारने का भाव करना वह कहलाता है संकल्पी हिंसा, जिसे मर्डर बोलते हैं। तुम गार्डन में खड़े थे, यू पत्ता तोड़ा और फेक दिया, कैमरे की नजर में हो, पापी हो तुम, जैन दर्शन सबसे ज्यादा जोडर देता है संकल्पी हिंसा मत करना, संकल्पी हिंसा सबसे बड़ा पाप है और किसान ने पूरा खेत साफ कर दिया, फिर भी उसे पापी नही कहा क्योंकि उसका मारने का भाव नही था। सैनिक 24 घंटे बंदूक लगाए रहता है, मारने का भाव है उसका, फिर भी उसे हत्यारा नहीं, देश का रक्षक कहा।
किसी ने दो घण्टे मशीन चलाई खेत मे, पूरा कुआ खाली कर दिया तो कहा कोई बात नही चलेगा, एक अंजलि कुल्ला करते समय तुमने जो नल चालू करके खुला छोड़ दिया, ये किसलिए यूँ, बस गैर जमानती वारेंट। अब एक-एक बूंद पानी को तरसोगे, तुम्हे ऐसे कर्म का बंध होगा कि तुम पानी पीने लायक भी नहीं रहोगे, अब होगा तुम्हारा डायलेसिस। यह डायलिसिस वाले कौन है जिन्होंने अपनी का दुरुपयोग किया होगा तो आज डॉक्टर कहता है इतने पानी से ज्यादा पानी नहीं पी सकते, ये निधत्त निकाचित कर्म बंधता है।
तुम्हारा दुश्मन भी क्यों न हो उसके फंसने पर खुशी मत मानना नही तो एक दिन तुम भी फंसोगे और वो पकड़ा गया है तुम्हे बरी रहना है जो अपराध तुम कर रहे हो और दूसरा कर रहा है, यदि तुम्हारा साथी, समाज का व्यक्ति पकड़ा जाए तो खुशी नहीं दुख मना लेना, जाओ तुम बचे रह जाओगे क्योंकि तुमने दुख मना लिया दूसरे के लिए। दूसरे के दुख को देखकर जो दुखी हो जाता है उसकी जिंदगी में दुख नहीं आता और दूसरे के दुखों को देखकर खुश हो जाता है, समझ लेना उसके ऊपर दुखों का पहाड़ टूटने वाला हैं।